11 अक्टूबर, 1902 को बिहार के सारण जिले के सिताब दियरा में पैदा हुए जय
प्रकाश नारायण (जे.पी.) को इंदिरा गांधी के विरूद्ध विपक्ष का नेतृत्व करने
के लिए जाना जाता है। वे समाज सेवक थे, जिन्हें लोकनायक के नाम से भी जाना
जाता है।
देश में जब भी किसी बड़े आंदोलन की शुरूआत हुई तो उसका केंद्र बिहार रहा है।
चाहे वो महात्मा गांधी द्वारा देश की आजादी के लिए शुरू किया गया आंदोलन हो,
या फिर जेपी का सन् 1974 का छात्र आंदोलन। 1974 में पहली बार वो किसानों के
बिहार आंदोलन में राज्य सरकार से इस्तीफे की माँग की। दूसरी तरफ केंद्र में
काबिज इंदिरा गांधी की प्रशासनिक नीतियों के खिलाफ भी उनके मन में आक्रोश पनप
रहा था। बुजुर्ग हो चुके जयप्रकाश नारायण का शरीर उनकी हिम्मत का साथ नहीं दे
रहा था। लेकिन उनका हौसला इन सब पर हावी था और उन्होंने बिहार में सरकारी
भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन किया। उनके नेतृत्व में पीपुल्स फ्रंट ने गुजरात
राज्य का चुनाव जीता।
इसी बीच 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की जिसके अंतर्गत जेपी
सहित 600 से भी ज्यादा सत्ता विरोधी नेताओं को बंदी बना लिया गया। इतना ही
नहीं, प्रजातंत्र का चौथा आधार स्तंभ माने जाने वाले मीडिया पर भी कड़े
प्रतिबंध लगा दिए गए। उधर कुछ दिन बाद जेपी की तबीयत ज्यादा खराब होने लगी
जिसे देखते हुए सात महीने बाद उनको जेल से छोड़ दिया गया लेकिन जयप्रकाश
नारायण ने तमाम दिक्कतों के बावजूद हार नहीं मानी और 1977 में सत्ता विरोधी
लहर में उन्होंने इंदिरा गांधी का किला ढहा दिया और वो चुनाव हार गईं।
आपातकाल, भारतीय इतिहास का एक ऐसा काला अध्याय जिसे भुलाया नहीं जा सकता। कहा
जाता है कि इंदिरा गांधी ने अपनी नीतियों को थोपने के लिए इसका सहारा लिया था।
वे युवाओं की आवाज को दबाना चाहती थीं, जिसका नेतृत्व जेपी नारायण कर रहे थे।
आपातकाल के बाद हुए चुनाव के बाद एक दफा, जेपी की वजह से ही इंदिरा गांधी रोने
पर मजबूर हो गईं थीं। जेपी के आंदोलन का ही असर था कि इंदिरा गांधी को आपातकाल
की घोषणा करनी पड़ी।
आमतौर पर धारणा है कि इंदिरा गांधी ने जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को कुचलने के
लिए आपातकाल लगाया था। गुजरात में शुरू हुआ छात्रों का भ्रष्टाचार विरोधी
आंदोलन बिहार पहुँच गया था। राजनीतिक दलों के आग्रह पर स्वतंत्रता सेनानी
जयप्रकाश नारायण आंदोलन की बागडोर सँभालने को राजी हो गए थे। अँग्रेजों को
चुनौती देने वाले जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की बागडोर सँभालते ही पूरे देश
में सामाजिक क्रांति की ज्वाला धधक रही थी। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए
इस आंदोलन पर काबू पाना बहुत मुश्किल हो रहा था। इंदिरा गांधी के इर्द-गिर्द
भ्रष्टाचारियों और सत्ता लोलुपों का जमावड़ा था। विभिन्न शासकीय पदों पर बैठे
कांग्रेसी नेता भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे थे। जयप्रकाश नारायण का आंदोलन
उन्हीं भ्रष्ट शक्तियों के खिलाफ था। वह व्यवस्था बदलना चाहते थे, शासक नहीं।
उनका आंदोलन इंदिरा गांधी के खिलाफ नहीं था। इंदिरा गांधी ने इसे अपने खिलाफ
मानना शुरू कर दिया था क्योंकि शासन की बागडोर उन्हीं के हाथ में थी।
इंदिरा गांधी ने आपातकाल जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को कुचलने के लिए नहीं,
अलबत्ता अपनी कुर्सी बचाने के लिए लगाया था। अगर ठीक उसी समय उनके लोकसभा
निर्वाचन पर हाईकोर्ट का फैसला नहीं आता तो शायद देश पर आपातकाल नहीं लगता।
पाकिस्तान को हराकर बांग्लादेश का गठन करने के बाद हुए इस चुनाव में इंदिरा
गांधी रणचंडी बनकर उभर चुकी थी। इसलिए खुद उनके लिए लोकसभा में पहुँचना कोई
मुश्किल काम नहीं था। उस समय वैसे भी चुनाव आयोग इतना शक्तिशाली नहीं था कि
प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली पर पैनी नजर रख सके। एक सदस्यीय
निर्वाचन आयोग सरकार की मुट्ठी में होता था। आमतौर पर धारणा थी कि निर्वाचन
आयोग सरकार का ही हिस्सा है। उस समय आयोग की ताकत राष्ट्रपति भवन जैसी ही थी,
जो केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर ही काम करता है। वैसे उस समय राष्ट्रपति
फखरुद्दीन अली अहमद ने बिना मंत्रिमंडल की सिफारिश के ही इंदिरा गांधी के कहने
पर आपातकाल लगा दिया था।
पीएच.डी. अधूरी
: डॉ. राजेंद्र प्रसाद और गांधीवादी विचारक डॉ. अनुग्रह नारायण सिन्हा द्वारा
स्थापित बिहार विद्यापीठ में जयप्रकाश नारायण अपनी पढ़ाई के लिए जुड़ गए।
उच्च शिक्षा के लिए वे 1922 में अमेरिका गए, जहाँ उन्होंने 1922-29 तक
कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय-बरकली, विसकांसन विश्वविद्यालय में समाज
शास्त्र का अध्ययन किया। विदेश में महँगी पढ़ाई का खर्च वहन न कर पाने के
कारण उन्हें खेतों, कंपनियों, रेस्टोरेंटों आदि में काम करना पड़ा।
उन्होंने एम.ए. की डिग्री तो पूरी कर ली पर माताजी की तबियत खराब हो जाने के
कारण वे 1929 में अमेरिका से भारत वापस आ गए और उनकी पी-एच.डी. अधूरी रह गई।
जीवन-संघर्ष सत्ता के लिए नहीं
: अमेरिका से भारत आने के उपरांत जे.पी. ने देखा कि यहाँ गोरे शासक के जुर्म
के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा है। उनका संपर्क जवाहर लाल नेहरू के साथ
हुआ और वे आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। 1932 में गांधी, नेहरू सहित कई
महत्वपूर्ण नेताओं के जेल जाने के बाद उन्होंने भारत के कई हिस्सों में
स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया, इसी दौरान मद्रास में उन्हें गिरफ्तार
किया गया। जेल में उनकी मुलाकात अच्युत पटवर्धन, एम.आर. मथानी, अशोक मेहता,
सी.के. नारायणस्वामी जैसे उत्साही कांग्रेसी नेताओं से हुई और यहीं
उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सी.एस.पी.) को जन्म दिया। सी.एस.पी.
समाजवाद में विश्वास रखती थी। जब कांग्रेस ने 1934 में चुनाव में हिस्सा
लेने का मन बनाया तो जे.पी. ने इसका विरोध किया। 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध
के दौरान उन्होंने अँग्रेज सरकार के खिलाफ लोक आंदोलन का नेतृत्व करते हुए
सरकार को किराया और राजस्व रोकने के अभियान चलाए। उन्हें गिरफ्तार किया गया
और 9 महीने की सजा हुई। जेल से छूटने के उपरांत उन्होंने गांधी और बोस के बीच
सुलह का प्रयास किया। उन्हें बंदी बनाकर मुंबई की आर्थर जेल और दिल्ली की
कैंप में रखा गया। भारत छोड़ो आंदोलन के समय 1942 में वे आर्थर जेल से फरार हो
गए। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्होंने हथियारों के उपयोग को जायज ठहराया।
यही कारण है कि वे नेताजी सुभाष चंद्र बोस की भांति नेपाल जा कर आजाद दस्ते
का गठन किया और उसे प्रशिक्षण दिया। 18 सिंतबर 1943 में उन्हें पंजाब
(अमृतसर) में चलती ट्रेन में गिरफ्तार किया गया और 16 महीने बाद जनवरी 1945
में उन्हें आगरा जेल में स्थांतरित कर दिया गया। उन्हें क्रूरता के लिए
सबसे बदनाम लाहौर जेल में भी रखा गया, सर्दियों के दिनों उन्हें बर्फ की
सिल्लियों पर सुलाया गया, फिर भी वे अँग्रेज सरकार के आगे झुके नहीं। शायद
इसीलिए गांधीजी ने कहा था कि लोहिया और जे.पी. की रिहाई के बिना अँग्रेज सरकार
से कोई समझौता मुमकिन नहीं है। अप्रैल 1946 में दोनों को रिहा किया गया। 1947
में आजादी के उपरांत जेपी को सरकार में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया
गया किंतु उन्होंने देश का गृहमंत्री बनने से इनकार कर दिया। वास्तव में
उनका जीवन संघर्ष सत्ता के लिए नहीं था, उन्होंने सत्ता को नकार दिया।
आजादी के उपरांत 1948 में उन्होंने कांग्रेस के समाजवादी दल का नेतृत्व किया
और बाद में समाजवादी सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। 19 अप्रैल, 1954 में
गया (बिहार) में उन्होंने विनोबा भावे के सर्वोदय आंदोलन के लिए जीवन
समर्पित करने की घोषणा की। 1957 में उन्होंने लोकनीति के पक्ष में राजनीति
छोड़ने का निर्णय लिया।
1960 के दशक के अंतिम भाग में वे राजनीति में पुनः सक्रिय रहे। 1974 में
किसानों के बिहार आंदोलन में उन्होंने तत्कालीन राज्य सरकार से इस्तीफे की
माँग की। वे इंदिरा गांधी की प्रशासनिक नीतियों के विरुद्ध थे। गिरते
स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने बिहार में सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन
किया। उनके नेतृत्व में पीपुल्स फ्रंट ने गुजरात राज्य का चुनाव जीता। 1975
में इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की, जिसके अंतर्गत जेपी सहित 600 से भी
अधिक विरोधी नेताओं को बंदी बनाया गया और प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई। जेल
में जेपी की तबीयत और भी खराब हुई। 7 महीने बाद उनको मुक्त कर दिया गया। 1977
में जेपी के प्रयासों से एकजुट विरोध पक्ष ने इंदिरा गांधी को चुनाव में हार
का रास्ता दिखाया। जयप्रकाश नारायण का निधन उनके निवास स्थान पटना में 8
अक्टूबर 1979 को हृदय की बीमारी और मधुमेह के कारण हुआ। उनके सम्मान मे
तत्कालीन प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने 7 दिन के राष्ट्रीय शोक का ऐलान
किया, उनके सम्मान में कई हजार लोग उनकी शोक यात्रा में शामिल हुए। 1998 में
उन्हें भारत रत्न से सम्मनित किया गया।
नेतृत्व का अनुशासन
: हाल के दिनों में भ्रष्टाचार की सूची को देखें तो इसकी फेहरिस्त बड़ी लंबी
है। चाहे 2 जी घोटाला हो, राष्ट्रमंडल खेलों के नाम पर की गई लूट का सवाल हो
या कर्नाटक के बेल्लारी में अवैध खनन के जरिये जमा किए गए माल का सवाल आदि,
भ्रष्टाचार के हमाम में सब नंगे हैं, कांग्रेस-बीजेपी तो कठघरे में खड़ी है
ही, उसके पीछे बाकी पार्टियाँ भी सह-अभियुक्त हैं। लेकिन अब ऐसा कोई जनांदोलन
नहीं दिखता है जिससे कि सत्ता तंत्र को चुनौती दी जा सके, थोड़ी बहुत छूट दी
जाए तो अन्ना का आंदोलन एक व्यवस्थागत संकट को संबोधित करता नजर आ रहा है।
दरअसल भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम में जेपी के नेतृत्व में सड़कों पर उतरकर जनता
ने नारा लगाया था - 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। वह आकर्षक और रेडिकल
नारा तत्कालीन तंत्र को एक चुनौती था। उस नारे के भीतर व्यवस्था-परिवर्तन के
लोकतांत्रिक प्रस्ताव थे। इसी प्रस्ताव के तहत जे.पी. ने कहा था "भ्रष्टाचार
मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रांति लाना आदि ऐसी चीजें हैं जो आज
की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं; क्योंकि वे इस व्यवस्था की ही उपज हैं। वे
तभी पूरी हो सकती हैं जब संपूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए और संपूर्ण व्यवस्था के
परिवर्तन के लिए क्रांति, 'संपूर्ण क्रांति' आवश्यक है।" वे राजनैतिक, आर्थिक,
सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति से संपूर्ण
क्रांति लाना चाहते थे। पाँच जून को सायंकाल पटना के गांधी मैदान में लगभग
पांच लाख लोगों की जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा - 'यह क्रांति है
मित्रों और संपूर्ण क्रांति है। विधान सभा का विघटन मात्र इसका उद्देश्य नहीं
है। यह तो महज मील का पत्थर है। हमारी मंजिल तो बहुत दूर है और हमें अभी बहुत
दूर तक जाना है।' जे.पी. ने छात्रों से संपूर्ण क्रांति को सफल बनाने के लिए
एक वर्ष तक विश्वविद्यालयों और कालेजों को बंद रखने का आह्वान किया। उनका
स्पष्ट मत था कि 'केवल मंत्रिमंडल का त्याग-पत्र या विधान सभा का विघटन काफी
नहीं है, बल्कि आवश्यकता है एक बेहतर राजनीतिक व्यवस्था के निर्माण की। सीमा
सुरक्षा बल और बिहार सशस्त्र पुलिस के जवानों से उन्होंने अपील की कि वे
सरकार के अन्यायपूर्ण और गैर कानूनी आदेशों को मानने से इनकार कर दें। जे.पी.
ने सात जून से बिहार विधान सभा भंग करो अभियान चलाने, मंत्रियों और विधायकों
को विधान सभा में प्रवेश करने से रोकने के लिए सभा के फाटकों पर धरना देने,
प्रखंड से सचिवालय स्तर तक प्रशासन ठप्प करने, लोकशक्ति को बढ़ाने हेतु
छात्र-युवक एवं जन संगठन बनाने, नैतिक मूल्यों की सदाचरण द्वारा स्थापना करने
तथा गरीब और कमजोर वर्ग की समस्याओं से निपटने के लिए भी छात्रों और जनसाधारण
का आह्वान किया। उनका भाषण समाप्त होने ही वाला था तभी सभास्थल पर गोलियों से
घायल लगभग 12 लोग पहुँचे और सभा में तीव्र उत्तेजना फैल गई। दरअसल ये राजभवन
से लौटने वाली भीड़ के वे लोग थे जो पीछे रह गए थे। इन लोगों पर बेली रोड स्थित
एक मकान से गोली चलाई गई थी। पटना के जिलाधीश विजयशंकर दुबे के मतानुसार, उस
मकान में 'इंदिरा ब्रिगेड' नामक संगठन के कार्यकर्ता रहते थे। उनमें छह
व्यक्ति गिरफ्तार कर लिए गए हैं, जिनमें से एक के पास से धुआँ निकलती बंदूक और
छह गोलियाँ बरामद की गई हैं। विशाल जन समूह के लोग गोलीबारी से चोट खाए लोगों
को देखकर आक्रोशित थे यदि जे.पी. का कहना नहीं मानते तो तो शायद उस समय इंदिरा
ब्रिगेड के दफ्तर से लेकर विधान भवन-सचिवालय आदि, सब कुछ जल गया होता। जे.पी
ने कहा कि वचन दो कि शांत रहोगे।' एकत्रित लाखों लोगों ने हाथ उठाकर, सिर
हिलाकर और 'हाँ' की जोरदार आवाज से जे.पी. को वचन दिया कि 'हमला चाहे जैसा
होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा।' ऐसा था जे.पी. का प्रभाव और उनके नेतृत्व में चल
रहे आंदोलन का अनुशासन।